गाँवों का भारत

Wednesday, December 14, 2011

शहर कब्बो रास न आईल



धुरि में लथेडाईल देहि 
चिकई अउर कबड्डी कै जोश 
गुल्ली डंडा कै टांड
आईस- पाईस कै 
छुपम छुपी वाला खेल
कहवा चलि गईल उ दिन
शायद दुरे जाके भी 
हमरे मन में आपन याद छोड़ी गईल 
रही रही के कसक जगावे खातिन

अमवा के बौर लागल डारी
बरबस खींच लेले मनवा के 
अपने टिकोरवा की ओरि
अउर मनवा दौड़ पड़ेला 
अमवा के बगिया की ओरे
जईसन बचपन में दीवाना रहल

अमरुदवा के डारी डारी 
खेलत लखनी अउर कलैया
खेतवा के मेडी मेडी दौड़त
संझवा के दौड़
कुछो नाहि भुलाईल 
सालन बाद भी शहर में रहि के 
शहर कब्बो रास न आईल    
 
 
 
  

Monday, September 12, 2011

माई


ऊ खुद आपन सीनवा  में 
छुपावत  रहि गईल 
जिनगी भर 
गमे के पहाड़ 
बकिन तै हमके कईले बडियार
हँसाई हँसाई के
तनिको न होखे देहले
ई बात के एहसास
ऊ रोई रोई के भी
अगर हंसल तै 
खाली हमके हंसावय  खातिन
जब जब हम गिरत रहनी 
छोड़ी देति रहल ऊ माई
बिलकुल हमके  अकेल
हर दाई हम  कोशिश कईनीं
उठी के खड़ा भईले के
अउर  जब  जब हम
उठी के  खड़ा भईनीं
ऊ हमार पियार से 
माथा चुमि लेत रहल 
अउर आज अगर हम खड़ा बानी तै
खाली ऊ माई के बदौलत
सच्चो में ई पियार आज सालन बाद भी
नईखे भूलाला ।।