धुरि में लथेडाईल देहि
चिकई अउर कबड्डी कै जोश
गुल्ली डंडा कै टांड
आईस- पाईस कै
छुपम छुपी वाला खेल
कहवा चलि गईल उ दिन
शायद दुरे जाके भी
हमरे मन में आपन याद छोड़ी गईल
रही रही के कसक जगावे खातिन ।
अमवा के बौर लागल डारी
बरबस खींच लेले मनवा के
अपने टिकोरवा की ओरि
अउर मनवा दौड़ पड़ेला
अमवा के बगिया की ओरे
जईसन बचपन में दीवाना रहल ।
अमरुदवा के डारी डारी
खेलत लखनी अउर कलैया
खेतवा के मेडी मेडी दौड़त
संझवा के दौड़
कुछो नाहि भुलाईल
सालन बाद भी शहर में रहि के
शहर कब्बो रास न आईल ।
भाईजी, ए सुन्नर रचना खातिर बधाई स्वीकार करीं अउर कबो समय निकालि के हमरियो भोजपुर नगरिया http://pandiji.blogspot.com
ReplyDeleteपर आपन आसिरबाद देबे आईं। सादर धन्यवाद।।
बढ़िया है...आंचलिक शब्दों की अपनी ही एक गहराई होती है.....
ReplyDeleteएह से कवनो फायदा नइखे। अबही से वर्तमान में जीए के शुरूआत करीं जेह से भविष्य मे कवनो बात के पछतावा ना रहे।
ReplyDeletebahut sundar rachna hai upendra ji , beete dinon ki yaad dilati huyi ...
ReplyDeleteआपका पोस्ट पर आना बहुत ही अच्छा लगा मेरे नए पोस्ट "खुशवंत सिंह" पर आपका इंतजार रहेगा । धन्यवाद ।
ReplyDeleteसुंदर रचना गाँव की तो बात ही अलग होती है !
ReplyDeleteआभार !
बहुत ही सुंदर भावों का प्रस्फुटन देखने को मिला है । मेरे नए पोस्ट उपेंद्र नाथ अश्क पर आपकी सादर उपस्थिति की जरूरत है । धन्यवाद ।
ReplyDeleteशहर रोटी देता है, तृप्ति नहीं. अपने गाँव की स्मृतियाँ सदा मीठी सी कसक मन में जगाती रहती है. सुंदर रचना.
ReplyDeleteबहुत सुन्दर भाव और एक खुबसूरत रचना
ReplyDeleteबधाई
बहुत सुन्दर प्रस्तुति यथार्थ को कहती हुई .
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