गाँवों का भारत

Wednesday, December 14, 2011

शहर कब्बो रास न आईल



धुरि में लथेडाईल देहि 
चिकई अउर कबड्डी कै जोश 
गुल्ली डंडा कै टांड
आईस- पाईस कै 
छुपम छुपी वाला खेल
कहवा चलि गईल उ दिन
शायद दुरे जाके भी 
हमरे मन में आपन याद छोड़ी गईल 
रही रही के कसक जगावे खातिन

अमवा के बौर लागल डारी
बरबस खींच लेले मनवा के 
अपने टिकोरवा की ओरि
अउर मनवा दौड़ पड़ेला 
अमवा के बगिया की ओरे
जईसन बचपन में दीवाना रहल

अमरुदवा के डारी डारी 
खेलत लखनी अउर कलैया
खेतवा के मेडी मेडी दौड़त
संझवा के दौड़
कुछो नाहि भुलाईल 
सालन बाद भी शहर में रहि के 
शहर कब्बो रास न आईल    
 
 
 
  

10 comments:

  1. भाईजी, ए सुन्नर रचना खातिर बधाई स्वीकार करीं अउर कबो समय निकालि के हमरियो भोजपुर नगरिया http://pandiji.blogspot.com

    पर आपन आसिरबाद देबे आईं। सादर धन्यवाद।।

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  2. बढ़िया है...आंचलिक शब्दों की अपनी ही एक गहराई होती है.....

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  3. एह से कवनो फायदा नइखे। अबही से वर्तमान में जीए के शुरूआत करीं जेह से भविष्य मे कवनो बात के पछतावा ना रहे।

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  4. bahut sundar rachna hai upendra ji , beete dinon ki yaad dilati huyi ...

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  5. आपका पोस्ट पर आना बहुत ही अच्छा लगा मेरे नए पोस्ट "खुशवंत सिंह" पर आपका इंतजार रहेगा । धन्यवाद ।

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  6. सुंदर रचना गाँव की तो बात ही अलग होती है !
    आभार !

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  7. बहुत ही सुंदर भावों का प्रस्फुटन देखने को मिला है । मेरे नए पोस्ट उपेंद्र नाथ अश्क पर आपकी सादर उपस्थिति की जरूरत है । धन्यवाद ।

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  8. शहर रोटी देता है, तृप्ति नहीं. अपने गाँव की स्मृतियाँ सदा मीठी सी कसक मन में जगाती रहती है. सुंदर रचना.

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  9. बहुत सुन्दर भाव और एक खुबसूरत रचना
    बधाई

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  10. बहुत सुन्दर प्रस्तुति यथार्थ को कहती हुई .

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